(संतोष कौशल, बिस्कोहर, सिद्धार्थनगर)
बिस्कोहर । बिस्कोहर के पश्चिम टोले का मोहर्रम काफी खास रहता है। यहां का मातम और ताजिया दूर-दूर तक प्रसिद्ध है । ताजिये गणिकाओं के टोले में सजाए जाते हैं। गणिकाओं की पूरी बस्ती मोहर्रम की पहली तारीख से दसवीं तक बदल सी जाती है। नववी की रात से दसवीं की शाम तक इस टोले मे आसपास के दर्जनों गांवों के लोग यहां का मोहर्रम देखने आते है। भीड़ को देखते हुए क्षेत्रीय व्यापारी भी अपनी दुकानें भी यहां पर लगाते है । यहां पर खाजा मिठाई बेचने के लिए बांसी के व्यापारी एक हफ्ता पहले आ जाते है ।
पुरानी परम्परा के अनुसार यहां की ताजियादार गणिकाएँ नववी की रात मे ताजिया को उठाकर ढोल व ताशे को बजाते हुए बिस्कोहर चौक मे लाती है और वहाँ से बिना जमीन पर रखे वापस मोड़कर अपने टोले मे ले जाकर चौक पर स्थापित करती है ।
फिर पूरी रात क्षेत्र के लोग यहां पर ताजिया को देखने के लिए आते है और कोई - कोई पुरुष पूरी रात व दसवीं की शाम तक बिना बैठे मन्नत के अनुसार कमर मे घुंघरू व सर पर पगडी व मोर पंख बांधकर हाय हुसैन हाय हुसैन करके मोर पंख से ताजिया को हवा देते है ।
दसवीं के दोपहर में दो बजे यहां से सभी ताजिये को उठाया जाता है और दो भागों में बाँट दिया जाता हैं। जिसमें पहला भाग मेन मार्केट से होते हुए बाबू के दरवाजे तक जाता है और वहीं से कर्बला चला जाता है । दूसरा पश्चिमी भाग में बेलवा कुटी सिंह के दरवाजे तक जाता है और सीधा दलपतपुर कर्बला पर आ जाता है। यहां पर लगभग एक दर्जन से अधिक गणिकाएं ताजिया रखती हैं । इसमें सबसे पहले नगीना का ताजिया उठता है तथा इसी तरह गणिकाओं में फरीदा, फिरौजा , अनवर , पप्पी , आसमीन , हसीना , नानबच्चे , रियाज , पन्ना और मंजू के ताजिये को उठाया जाता हैं।
यहां रहने वाली गणिकाएँ मन्नत के अनुसार दस दिन तक पूरी अकीदत के साथ व्रत रखती है । बिस्कोहर निवासी एवं प्रख्यात साहित्यकार डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी किताब "नंगा तलाई का गांव" मे बिस्कोहर के पश्चिमी टोले के मोहर्रम का जिक्र भी किया है ।
बताया है कि अपने बचपन मे हर बार यहां मोहर्रम का जुलूस देखने जाते थे । गणिकाएँ मोहर्रम के दौरान बिल्कुल अलग नजर आती थी । इन्हें देखते ही पवित्रता का अहसास होता था ।
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