अजय कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर इतिहास राजकीय महाविद्यालय डुमरियागंज
सिद्धार्थनगर,
23 मार्च का दिन इतिहास, विशेषकर क्रांतिकारी शहादत के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण महत्त्वपूर्ण दिन है।23 मार्च 1931 को महान क्रांतिकारियों सरदार भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजी सरकार ने फांसी दी थी। पहले इन महान क्रांतिकारियों को हार्दिक नमन करते हुए श्रद्धांजलि।
सरदार भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के उपर 1928 में अंग्रेज अधिकारी साण्डर्स की स्त्रियां और असेम्बली कांड का दोषी पाया गया था। अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड इरविन इन क्रांतिकारियों के मसलों को सुनने के लिए एक विशेष ट्राइब्यूनल का गठन किया था, जिसने इन क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनाई।23 मार्च 1931 को लाहौर में साय 7बजकर ,35 मिनट पर फांसी दी गई। इस घटना को समझने के लिए क्रांतिकारी विचार एवं इसके उद्देश्यों को समझना जरूरी है।
स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान संघर्ष की प्रमुख विचार धाराएं इस प्रकार है।
एक विचारधारा उदारवादियों की थी, जो अंग्रेजी सरकार के अन्तर्गत भारतीयों के अधिकारों की मांग करतीं थीं। इसका प्रभाव 1885 से 1905 तक रहा। दादाभाई नौरोजी, गोखले, मेहता इसके प्रमुख नेता रहे।
1892 के अधिनियम,1905 के बंगाल विभाजन के फलस्वरूप भारतीय जनमानस में उदारवादियों का विश्वास खत्म हो गया। इसके प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उग्रवादी विचार धारा जन्म ली। ये लोग अंग्रेजी शासन का विरोध करते थे, स्वराज अपना लक्ष्य मानते थे। इसके प्रमुख नेता लाला लाजपत राय,बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल रहे। यह भी विचार धारा अपने संघर्ष के बाद अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रही।
उपरोक्त विचार धारा अपने संघर्ष के माध्यम से भारतीय जनमानस में व्याप्त असंतोष को दूर करने में असफल रही।इन्हीं परिस्थितियों में गांधीवादी और क्रांतिकारी आंदोलन जन्म लिया।
गांधीवादी विचारधारा सत्य , अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से स्वतंत्रता की प्राप्ति पर बल देती थी। वहीं क्रांतिकारी आंदोलन खून के बदले खून के सिद्धांत पर बल देते हुए हिसंक गतिविधियों के माध्यम से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करती थी। अब प्रश्न उठता है कि क्रांतिकारी आंदोलन के उदभव के क्या कारण थे? इतिहासकारों ने इसके लिए यूरोप में घटित जारशाही शासन के खिलाफ हिसंक गतिविधियों,निहलिस्ट आंदोलन, भारत में जारी आंदोलन की असफलताओं को उत्तरदाई माना।
बंगाल,बम्बई प्रेडेन्सी , एवं उत्तर भारत विशेषकर बिहार और वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में इसका प्रभाव देखा गया।
सरदार भगतसिंह एवं सुखदेव जहां वर्तमान में पाकिस्तान के से पंजाब , वह राजगुरु पूना के निवासी थे।
सरदार भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को पंजाब प्रांत के लायलपुर में हुआ था। इनके पिता किशन सिंह और माता विद्यावती कौर था। इनके पिता और दादा क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े हुए थे,इनका प्रभाव सरदार भगतसिंह के उपर पड़ा। कुछ सरकारी दस्तावेजों में इनकी जन्म तिथि 19अक्टूबर 1907 बताया।
13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग कांड भगतसिंह को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। 1921 ई में इन्होंने नौजवान सभा का गठन किया।1928 ई में इन्होंने नौजवान सभा का विलय हिंदूस्थान रिपब्लिकन एसोसिएशन में कर दिया। सरदार भगतसिंह के जीवन में मार्क्स के विचारों का प्रभाव रहा, परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए क्रांतिकारी आंदोलन का सहारा लिया। इन्होंने अपनी आत्मकथा मैं नास्तिक हूं लिखा।
23 मार्च 1931 को सुखदेव, राजगुरु और सरदार भगतसिंह को फांसी दी गई।अब प्रश्न उठता है कि गांधी जी ने इनकी फांसी की सजा को माफ कराने में क्यो असफल रहे? गांधी जी क्या कोई बात प्रयास नहीं किया?
उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर यंग इंडिया के एक लेख में मिलता है। गांधी जी ने इस लेख में लिखा है कि भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु आपकी बहादुरी का कायल हूं, आपके द्वारा बताए गए लक्ष्य स्वतंत्रता का समर्थन करता हूं, परंतु आप सभी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जो मार्ग अपनाया, वह गलत है। ईश्वर कभी आपको बर्दाश्त नहीं करेगा।
हमेशा इतिहासकारों के दिमाग में यही प्रश्न रहता है कि गांधी जी इरविन के संवाद में फांसी को माफ कराने में बल नहीं दिया।
सरदार भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को कोटि कोटि नमन।
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