संतोष कौशल, सिद्धार्थनगर
सिद्धार्थनगर । विश्व सेवा संघ अध्यक्ष सुनील केसी के नेतृत्व में विश्व प्रकृति दिवस पर एक गोष्टी का आयोजन किया गया ।
गोष्ठी को संबोधित करते हुए सुनील केसी ने कहा जल, जमीन, जंगल, जीव,पहाड़ प्रकृति के मुख्य अंग है।
ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में मानव प्रकृति के अधिक समीप था। लेकिन औद्योगीकरण की प्रक्रिया आरम्भ होने के बाद स्थिति में कई तरह के बदलाव आए। नए स्थापित बड़े एवं भारी उद्योगों की स्थापना के साथ ही प्रकृति को तहस-नहस करने की एक अन्धी दौड़ शुरू हुई। उद्योगों के लिये कच्चे माल की जरूरत को पूरा करने के लिये प्रकृति के गर्भ में सदियों से सुरक्षित धातुओं और खनिज पदार्थों की खुदाई का विवेकहीन सिलसिला शुरू हुआ जो आज तक जारी है। इस प्रक्रिया के कारण धरती के ऊपर से वनों का सफाया कर दिया गया और कच्चे माल को लाने और ले जाने के लिये दूर-दूर तक सड़कें बिछा दी गईं। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप उद्योग-धंधों ने उपयोगी पदार्थों का उत्पादन तो अवश्य किया लेकिन साथ ही काफी मात्रा में ऐसे अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन भी किया जिनके कारण जल एवं वायु जैसे प्राकृतिक संसाधनों को प्रदूषण रूपी महामारी का सामना करना पड़ा।
मानव सभ्यता के आरम्भ से ही मानवीय उपयोग के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाता रहा है तथा आधुनिक विश्व की अर्थव्यवस्था इन्हें प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर निर्भर है। लेकिन विकासात्मक गतिविधियों से सम्बन्धित बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के कार्यान्वयन के परिणामस्वरूप वर्तमान युग में पर्यावरण-सम्बन्धी समस्यायों का स्वरूप अधिक-से-अधिक गम्भीर होता जा रहा है। विकासात्मक कार्यों और विकास सम्बन्धी सभी सहायक क्रियाकलापों के कारण प्रायः परिवेशी पर्यावरण, प्रकृति और लोगों के सांस्कृतिक जीवन पर विनाशात्मक और नाकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होता है। इसका कारण यह है कि सभी प्राकृतिक संसाधन यथा जल खनिज संसाधन, सागरीय सम्पदा, वन, मृदा आदि सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं और इनकी उपलब्धता हमेशा नहीं रहने वाली है, अर्थात ये सभी संसाधन शाश्वत नहीं हैं।
वर्तमान युग में विकास की विभिन्न गतिविधियों के कारण प्राकृतिक संसाधनों का भेदभावपूर्ण उपयोग एवं इसका विदोहन बेरोक-टोक जारी है। दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि के कारण अवसंरचनाओं के त्वरित विकास की माँग लगातार बढ़ रही है। बढ़ती जनसंख्या के लिये अधिक सुविधाओं की आवश्यकता और घटते प्राकृतिक संसाधनों की इस पृष्ठभूमि में दुर्लभ होते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता पहले से बहुत अधिक बढ़ गई है।प्रकृति का सावधानीपूर्वक और इष्टतम उपयोग की आवश्यकता है और ऐसा करके इन्हें संरक्षित किया जाना भी आवश्यक है।
प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग का परिणाम
विकास के नाम पर पृथ्वी पर आज जिस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय किया जा रहा है, उसके कारण न केवल इन संसाधनों के स्रोत समाप्त हो रहे हैं बल्कि प्रदूषण में वृद्धि, प्रदूषण-जनित बीमारियों का प्रसार, सूखा पड़ने, मरुस्थलों का विस्तार, प्राकृतिक असन्तुलन जैसी विभिन्न समस्याएँ भी अपने पैर पसार रही हैं। यहाँ तक कि प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग में वृद्धि एवं बढ़ते प्रदूषण के कारण प्राकृतिक आपदाओं के रूप में पृथ्वी पर कई प्रकार के उलट-फेर भी हो रहे हैं। जापान में सुनामी और भूकम्प द्वारा मचाई गई तबाही एवं जान-माल की हानि के सम्बन्ध में विशेषज्ञों की आम राय है कि इनसे उबरने में इस देश को कई वर्ष लग जाएँगे। स्पष्ट है कि प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण दुरुपयोग के कारण हरी-भरी धरती मुरझा रही है तथा भोजन एवं पानी के प्राकृतिक स्रोत समाप्त हो रहे हैं। जलस्रोतों, जंगल और जमीन जैसे अनमोल संसाधनों के अपव्यय तथा इनके दुरुपयोग के कारण जो संकट हमारे सामने आज उपस्थित हुआ है, उसके निवारण के लिये सबसे पहले विद्यमान समस्या की गम्भीरता पर विचार करना सबसे जरूरी है।
पर्यावरण संरक्षण के लिये बनाए गए विभिन्न कानूनों की उपस्थिति के बावजूद कार्यान्वयन के स्तर पर उपेक्षा और भ्रष्ट सामाजिक वातावरण ने प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और उनके साज सम्भाल के विषय को नेपथ्य में पहुँचा दिया है।
भ्रष्टाचार और देश की बढ़ती जनसंख्या ने पर्यावरण के साथ-साथ हमारी सामाजिक व आर्थिक समस्याओं का स्वरूप विकराल बना दिया है। जनसंख्या-वृद्धि के साथ पानी की जरूरत बढ़ने के कारण इससे सम्बन्धित समस्याएँ भी बढ़ी हैं। दुनिया के कई इलाकों में अच्छी बरसात होती है और पानी की कोई कमी नहीं है। लेकिन बरसात के मौसम में पानी को बेकार बहने से रोका नहीं जाता और इसकी वजह से साल भर वहाँ पानी की कमी बनी रहती है। इस प्रकार, विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों के लिये जरूरी पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये समुचित प्रयास नहीं किए जाते। अन्ततः पानी उपलब्ध न होने की स्थिति में जल के भूगर्भीय भण्डार का अनियन्त्रित उपयोग शुरू कर दिया जाता है। इस प्रकार लगातार पानी निकलने से धरती खोखली होने लगती है।
प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण विदोहन का परिणाम कितना गम्भीर है, इसे मौसम के उलट-फेर और आपदाओं की संख्या में वृद्धि ने स्पष्ट कर दिया है। लेकिन हम जान-बूझ कर समस्या की अवहेलना कर रहे हैं जिसके कारण समस्याओं के विनाशकारी परिणाम हमें ही भुगतने पड़ रहे हैं। यह एक सच्चाई है कि विकास की विभिन्न गतिविधियों के कारण प्रदूषण में वृद्धि होती है एवं पर्यावरण के क्षरण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है। जनसंख्या में वृद्धि से ही प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग लगातार बढ़ रहा है। इन संसाधनों के प्रयोग से हानिकारक उत्पादों के निर्माण एवं अधिक संख्या में इनके उपयोग से पर्यावरण पर अनावश्यक दबाव पड़ता है। यह देखा गया है कि अधिक जनसंख्या-घनत्व वाले क्षेत्रों में अधिक प्रदूषण फैलता है तथा मिट्टी, जल, वायु एवं वन जैसे प्राकृतिक संसाधनों की अवनति की प्रक्रिया तेज हो जाती है।
मिट्टी की अवनति
विकास की विभिन्न गतिविधियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये पूरी दुनिया में वनों का निरन्तर विनाश जारी है। इसके कारण मानव-जीवन की आधार, भूमि का सन्तुलन बिगड़ गया है और मिट्टी ढीली पड़ती जा रही है। इससे भूमि के अपरदन अर्थात मिट्टी के कटाव में वृद्धि को बढ़ावा मिल रहा है। दुनिया के कृषि-क्षेत्रों को देखें तो अन्न का उत्पादन बढ़ाने के लिये आज जितनी अधिक मात्रा में रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़ रहा है उतना ही अधिक प्रदूषण भी फैल रहा है। कुल मिलाकर मिट्टी का संकट लगातार बढ़ता जा रहा है और दुनिया के अनेक हिस्सों में यह तेजी से अनुपयोगी होती जा रही है।
औद्योगिक विकास के नाम पर जिस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसके कारण मिट्टी सहित पर्यावरण के सभी घटकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
विकास-कार्य मानव की भलाई के लिये है लेकिन यदि इससे विनाश फैलने लगे तो मानव को समय पर सचेत हो जाना चाहिए। धरती पर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है जिसके कारण भूमि पर दबाव भी बढ़ता जा रहा है। इसके कारण मिट्टी के दोहन अथवा इसके दुरुपयोग में भी वृद्धि हुई है। दूसरी ओर विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण मिट्टी रद्दी की टोकरी बन कर रह गई है। वर्तमान स्थिति यह है कि मिट्टी की जिस एक सेंटीमीटर उपयोगी परत को बनाने में प्रकृति सैकड़ों साल का समय लगा देती है, उसे मानव कुछ ही पलों में नष्ट कर देता है।
जल संकट
हमारी धरती पर अथाह जल-सम्पदा है। इसके बावजूद आज जल के लिये चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है। लोगों को अपनी दैनिक जरूरतों के लिये जल नहीं मिल रहा है और जो थोड़ा-बहुत जल जैसे-तैसे मिल भी रहा है वह किसी भी दृष्टि से मानवीय उपयोग के लायक नहीं होता। वर्तमान जल-संकट का सर्वप्रमुख कारण है इस सम्पदा का अविवेकपूर्ण उपयोग समाज के उच्च वर्ग में जल को आज विलासिता का साधन बना दिया गया है। कृत्रिम फव्वारों, तरण-ताल, मछली-घर नर्सरी, वाटर पार्क जैसी विलासिता की वस्तुओं एवं मनोरंजन के विभिन्न साधनों के कारण जल का जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है जिसके कारण जरूरतमंदों को अपनी बुनियादी जरूरतों के लिये भी पर्याप्त जल नहीं मिल पा रहा है।
जल के लिये बढ़ता कलह और विभिन्न विवादों की उत्पत्ति एक विश्व-व्यापी समस्या है।
जंगलों का विनाश
उपयोगी वृक्षों एवं वनों तथा औषधीय महत्त्व के पौधों के अन्धाधुंध विनाश के कारण दुनिया के अनेक हिस्सों में पर्यावरणीय असन्तुलन को बढ़ावा मिला है और जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। वनों के विनाश तथा पेड़ पौधों की अन्धाधुंध कटाई से पृथ्वी पर खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो गई है। पर्याप्त पेड़ पौधों के अभाव के कारण भूमि में जल को सोखने एवं अपनी उर्वरता को बनाए रखने की क्षमता नष्ट हो गई है। वृक्षों के अभाव में प्रदूषण के दुष्प्रभाव में वृद्धि हो जाती है और प्रदूषण बढ़ने से बीमारियों की संख्या भी बढ़ जाती है। पर्याप्त वनस्पति के अभाव में गर्मी, सूर्य प्रकाश, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन आदि का प्रकोप काफी बढ़ जाता है। इसके परिणाम स्वरूप मनुष्य को अनेक शारीरिक कष्टों और विभिन्न व्याधियों को झेलना पड़ता है।
जंगलों के विनाश को, जैवविविधता पर मानव द्वारा उत्पन्न सबसे बड़े खतरे के रूप में भी समझा जा सकता है। एशियाई विकास बैंक की रिपोर्ट के अनुसार एशियाई देशों में जैव विविधता समाप्त होने की गति चिन्ताजनक है और यह मानव-जाति के अस्तित्व के लिये सबसे बड़ा संकट बनकर उभर रहा है। जैव विविधता की दृष्टि से पूरे संसार में सबसे समृद्ध माने जाने वाले हमारे देश को भी इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा है। भूमि और जंगलों पर आसन्न इस संकट ने स्थिति को त्रासदीपूर्ण बना दिया है। देश में भूक्षरण में होने वाली वृद्धि से भी लगभग 15 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन नष्ट हो गए हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि बाढ़ों की त्रासदी उग्र हुई है और अनेक वन्यप्राणी और वनस्पतियाँ या तो लुप्त हो गई हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं।
वर्तमान युग में भौतिक समृद्धि और अवसंरचना का तीव्र विकास हर देश का प्रमुख उद्देश्य बन गया है। इसी प्रगति के लालच में वनों की अन्धाधुंध कटाई के कारण पृथ्वी पर हरियाली का साया लगातार घटता गया है।
संसाधनों की सुरक्षा से प्राकृतिक सन्तुलन की रक्षा
प्रकृति के साथ मनमाना छेड़छाड़ बन्द करना होगा।
मानव की विकृत मानसिकता के कारण आज मानव समाज को प्रदूषण और प्रदूषण-जनित समस्याओं में वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों का अभाव, पर्यावरणीय असन्तुलन और जलवायु-परिवर्तन जैसी विकटतम समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। धरती पर मानव का जीवन प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर करता है। अतः यदि प्रत्येक व्यक्ति इन संसाधनों का महत्त्व पहचान ले तो मानव के अस्तित्व की सुरक्षा सम्भव है। यदि प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति-प्रदत्त सम्पदा का विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित करे तो इससे पूरे विश्व में सुख-सम्पन्नता आ सकती न केवल साधनहीन ग्रामीण क्षेत्रों के विशेष सन्दर्भ में यदि सरकार वहीं के मूल निवासियों को स्थानीय जलस्रोतों, जंगल और जमीन के रख-रखाव का अधिकार देती है तो इसके सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। स्थानीय विकास के लिये इन संसाधनों का बेहतर उपयोग करने के साथ-साथ पानी जैसे अनमोल संसाधन की बचत करना भी सम्भव हो सकेगा। हम जानते हैं कि मिट्टी का अपरदन रोकने एवं जल-सन्तुलन बनाए रखने के लिये पृथ्वी पर पर्याप्त मात्रा में पेड़ों का होना आवश्यक है। लोगों को खाली स्थानों पर वृक्ष लगाने के लिये प्रोत्साहित करने से हरियाली आएगी और जल-चक्र भी सन्तुलित बना रहेगा। इस प्रकार, जल, जमीन और जंगल तीनों की रक्षा हो सकेगी तथा पानी की कमी जैसा संकट समाप्त करने में भी सहायता मिलेगी।
नदियाँ, यह वन और नाना प्रकार के जीव, हमें न केवल अपने पूर्वजों से विरासत में मिले हैं, बल्कि यह उस भावी पीढ़ी की हमारे पास धरोहर हैं जिसने अभी तक जन्म नहीं लिया है
पृथ्वी पर समस्त जीव की सुरक्षा करने तथा अन्ततः पृथ्वी को बचाने के लिये यह जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को रोकने के अविलम्ब प्रयास किए जाएँ वर्तमान परिस्थितियों में विकास-कार्यों को सही दिशा प्रदान करना बहुत आवश्यक है
अतः मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य और पृथ्वी के संरक्षण के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि इस पर पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों का सन्तुलन न बिगड़े। पृथ्वी से ही नाना प्रकार के फल-फूल, औषधियाँ, अनाज, पेड़-पौधे आदि उत्पन्न होते हैं तथा पृथ्वी-तल के नीचे बहुमूल्य धातुओं एवं जल का अक्षय भण्डार है। अतः इसका संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है ताकि पृथ्वी के ऊपर जीव-जगत सदैव फलता-फूलता रहे।राममनोहर यादव, जय प्रकाश गौतम, माता प्रसाद, शिव मनोहर पटेल, पंकज यादव आदि लोग मौजूद रहें।
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